रोज़ा रखिए मगर सुन्नत के मुवाफिक |
सन् 1973 ई० की बात है कि एक आदमी इस आजिज़ से मिलने आया। वह सोलह साल से लगातार रोज़े रख रहा था। मेरे दोस्त बड़े हैरान हुए कि यह सोलह साल से लगातार रोज़े रख रहा है ?
मैंने कहा यह काम इतना मुश्किल नहीं है। वह कहने लगे कैसे मुश्किल नहीं है, सर्दी, गर्मी, सेहत, बीमारी, सफर, हज़र हर वक्त रोज़े से रहना बहुत मुश्किल है। मैंने कहा अच्छा तो उसी से पूछ लें।
चुनाँचे उन्होंने उस आदमी से पूछा कि क्या आपको रोज़ा रखने में कोई दिक्कत पेश आती है ?
वह कहने लगे नहीं। फिर वह मुझे कहने लगे कि यह क्या मामला है ? मैंने कहा यह इसकी आदत बन गई है। कुछ लोग दिन में तीन दफा खाना खाते हैं और कुछ लोग सुबह व शाम दो दफा खाते हैं। इसी तरह आप यूँ समझें कि यह भी दिन में दो दफा खाना खाते हैं।
एक दफा सहरी के वक्त और एक दफा इफ़्तिारी के वक्त लिहाज़ा इनकी यह आदत बन गई है। मैंने कहा कि उनसे कहें कि आप सौमे दाऊदी रखें यानी एक दिन रोज़ा रखें और दूसरे दिन नागा करें।
चुनाँचे उन्होंने उनसे पूछा कि क्या आप सौमे दाऊदी रख सकते हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता। उन्होंने पूछा वह क्यों तो कहने लगे इसलिए कि यह तो मेरी आदत बन गई है और दिन के वक्त अब मेरा कुछ खाने को दिल ही नहीं करता।
अगर मैं एक दिन खाऊँ और एक दिन रोज़ा रखूँ तो इसमें मेरे नफ्स पर ज़्यादा बोझ होगा जो कि मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मैंने कहा देखो यह जो अपनी मर्ज़ी से मुजाहिदा करते हैं वह काम आसान है लेकिन हदीस में जो तरीका आया है उसके मुताबिक काम करना इसलिए बहुत मुश्किल है। रोज़ा रखिए मगर सुन्नत के मुवाफिक
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1 टिप्पणियाँ
Masa Allah
जवाब देंहटाएंअस्सलामू अलैकुम